कर्मों की गति समझने के बाद सफलता जल्दी मिलेगी | Buddhist Story on Karma | Law Of Karma


जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल प्राप्त होगा। ये कहावत हम सबने बहुत बार अपने जीवन में सुनी होगी, लेकिन क्या सच में आप दिल से मानते हैं कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा ही होता है? अंदर से कोई स्पष्ट उत्तर नहीं आ रहा होगा, क्योंकि हम अपने आसपास ऐसे बहुत से लोगों को देखते हैं जो जीवन भर अच्छे कर्म करते रहते हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें अच्छे फल प्राप्त नहीं हो पाते। एक नौजवान कडी मेहनत करता है किसी परीक्षा में पास होने के लिए।

लेकिन उस परीक्षा के परिणाम में उसे निराशा ही हाथ लगती है। तो इससे तो यही सिद्ध होता है कि जिन महापुरुषों ने ऐसा कहा है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा ही होता है या तो वो महापुरुष गलत थे या फिर हम कर्मों का लेखा जोखा समझ ही नहीं पाते. पर चिंता मत करिए क्योंकि आज की कहानी सुनने के बाद कर्मों के बारे में आपकी सोच, आपकी दृष्टि, एकदम स्पष्ट हो जाएगी।

कहानी को आखिर तक जरूर सुने तभी आप अच्छी तरह समझ पाओगे। पुराने समय की बात है। किसी गांव में राकेश और भोला नाम के दो भाई रहते थे। पूरा गांव जानता था कि वो कहने को भाई थे, लेकिन भाई जैसा प्रेम उन दोनों में नहीं था। राकेश बडा था और भोला से वो बहुत तेज और चालाक था। उसने भोला के हिस्से में आने वाली खेती बाडी की जमीन भी खुद हडप ली थी।

इसीलिए भोला के परिवार को बडे ही कष्ट के दिन झेलने पड रहे थे। भोला की पत्नी अक्सर बीमार रहा करती थी और उसके पास उसके इलाज तक के पैसे नहीं थे। लेकिन अपने भाई से विपरीत भोला बडे ही शीतल स्वभाव का इंसान था। वो कभी किसी के साथ बुरा नहीं करता था, लेकिन उसके मन में अक्सर ये सवाल उठा करता था कि मैं किसी का बुरा नहीं करता, किसी के बारे में बुरा सोचता तक नहीं हूँ।

तो मेरे साथ ऐसा क्यों होता है? क्यों मेरी पत्नी हमेशा बीमार रहती है? क्यों मेरे पास इतना भी धन नहीं है कि मैं अपना जीवन अच्छे से चला सकूँ? क्यों मुझे मेरे कर्मों का फल नहीं मिलता है? और मेरा भाई इतना धूर्त है, इतना चालाक है और वो हमेशा मज़े में रहता है, उसी तो कोई परेशानी नहीं है। वो सोचने लगा कि शायद बुरे कर्मों का फल अच्छा मिलता है। अच्छे कर्मों का फल अच्छा नहीं मिलता और धीरे धीरे इस संधे उसके मन में घर करने लग गया।

उसी गांव से कुछ दूर एक सन्यासी अपनी कुटिया बनाकर रहा करता था। जब भी वो सन्यासी गांव में भिक्षा मांगने के लिए आता, तो सबसे एक ही बात कहता, कि जो तू ने किया वो तेरे हिस्से और जो मैंने किया वो मेरे हिस्से। भोला इस बात का अर्थ कभी समझ नहीं पाया। एक दिन जब वो गहरी चिंता मेँ डूबा हुआ था, तो उसके कानों में यही शब्द पडे. कि जो तू ने किया वो तेरे हिस्से और जो मैंने किया वो मेरे हिस्से। जैसे ही ये शब्द भोला के कानों में पडे।

वो गुस्से से तिलमिला उठा। उसने गुस्से में उस सन्यासी से कहा कि हे महात्मा आप हमेशा ही की बात का रट लगाते रहते हैं, जिसका कोई मतलब नहीं है। अगर आपकी बात सत्य होती तो मैं जीवन में अच्छे कर्म करते आया हूँ तो मेरे हिस्से में तो अच्छे ही कम होने चाहिए थे, अच्छा ही फल प्राप्त होना चाहिए था, लेकिन मुझे कुछ भी अच्छा फल प्राप्त नहीं हुआ। मेरी पत्नी हमेशा बीमार रहती है, खाने तक के पैसे नहीं होते हमारे पास। सन्यासी ने बडे ही शांत स्वर में कहा कि ऐसा प्रतीत होता है बेटा की परिस्थितियों से तुम हार मान चूके हो।

कठिन परिस्थितियों ने तुम्हारी सोच पर गहरा असर डाला है। बुरे समय में तुम्हारी सोच भी बदल कर रख दी है। तुम्हें काम करना, आज संध्या समय कुछ फल लेकर मेरे आश्रम में आना, फिर मैं तुम्हारे सारे सवालों के जवाब दूंगा और ये कहकर वो सन्यासी अपना भिक्षापात्र लेकर अगले घर की तरफ निकल जाता है। संध्या समय भोला ने कुछ फल खरीदे और गांव से दूर उस सन्यासी की कुटिया की तरफ निकल पडा, जैसे जैसे वो रास्ते पर आगे बढ रहा था।

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उसे अथाह शांति का अनुभव हो रहा था, क्योंकि रास्ता गांव से दूर था, इसीलिए उस में कोई हलचल नहीं थी। बस रास्ते में जगह जगह कुछ लंगूर और बंदर दिखाई दे रहे थे। भोला के मन में आया की वो कुछ पल उन बंदरो और उन लंगूरों को खिला दें। लेकिन फिर उसने सोचा कि अगर मैं फल लेकर सन्यासी के पास नहीं गया, तो मेरे सवालों के जवाब मुझे नहीं मिलेंगे। इसीलिए बंदरों से वो फल बचाता हुआ उस सन्यासी की कुटिया तक पहुंचा।

जैसे ही भोला उस कुटिया मैं पहुंचा, वैसे ही सन्यासी बोल पडा। अगर मन में था तो ये फल खिला क्यों नहीं दिया बंदरों को? ये सुनकर भोला आश्चर्यचकित रह गया। सन्यासी को कैसे पता चला, कि उसके मन में बंदरों को फल खिलाने की इच्छा उठी थी? उसने पूछा कि महात्मा आपको कैसे पता, कि मैं बंदरों को फल खिलाना चाहता था? सन्यासी ने बडे ही शांत स्वर में कहा कि जरूरी यह नहीं है कि मुझे कैसे पता चला, हम तो सन्यासी हैं, सबके मन की बात पढ लेते है।

जरूरी ये बात समझना है कि जिस तरह एक बछडा हजारों गायों के बीच अपनी माँ को ढूंढ लेता है उसी प्रकार कर्म अपनी करता को ढूंढ ही लेता है। ये कर्म मेरे हाथों ही होना लिखा था और ये कहकर सन्यासी ने उसके हाथ से फल लिए और बंदरों को खिलाना शुरू कर दिए। भोला इस बात का मतलब समझ नहीं पाया। इसीलिए उसने उस सन्यासी से सवाल किया कि महात्मा मैं आपकी बात का आशय समझ नहीं पाया।

कृपया करके मुझे अज्ञानी को इस का मतलब समझाने की अनुकंपा करें। सन्यासी ने बडे शांत स्वर में कहना शुरू किया कि बेटा मनुष्य को हमेशा यही लगता है कि वही करने वाला है, वही करता है और वही कर्म करेगा। लेकिन समझने की बात यह होती है कि कर्म आपका खुद चुनाव करता है। आप कर्म का चुनाव नहीं करते। अगर आप किसी कर्म को करने के योग्य है, तो हजारों लोगों के बीच में से कर्म आपको अपने आप ढूंढकर निकाल लेगा। इसीलिए योग्य बनने पर ध्यान दो। कर्म करने पर ध्यान मत दो। अगर तुम सिर्फ कर्म करने पर ध्यान दोगे।

तो कभी योग्य नहीं बन पाओगे। योग्य बनने के लिए जिन कर्मों की आवश्यकता होती है, पहले उन छोटे छोटे कर्मों को करना शुरू करो और जब तुम योग्य बन जाओगे तो बडा कर्म या कहें कि मुख्य कर्म या फिर जिस कर्म के लिए तुम बने हुए हो वो कर्म तुम्हारे पास खुद चलकर आएगा। उदाहरण के लिए तुम इन बंदरों को देखो। इन बंदरों ने छोटे छोटे कर्म करके पेडों पर चढना सीखा, गुलाटियाँ लगाना सीखा और इसी प्रकार छोटे छोटे कर्म करते हुए

ये मुझ तक पहुँच गए और मुझ तक पहुँचने के बाद इनके पास इनका खाना खुद ही पहुँच गया। इसीलिए अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में छोटे छोटे कर्म करते हुए अपने आप को योग्य बनाते जाओ और जब तुम योग्य बन जाओगे, तो अपने आप बडा लक्ष्य तुम्हें प्राप्त हो जाएगा। सन्यासी ने अगला कथन कहना शुरू किया जो कि बहुत ही जरूरी था। ध्यान लगाकर सुनना अगर तुम योग्य बनने के लिए कर्म नहीं करोगे, तो दूसरे लोगों के कर्म भी तुम्हें प्रभावित करने लगेंगे।

उदाहरण के लिए तुम्हारी पत्नी कई दिनों से बीमार है। तुम अक्सर यही सोचते हो कि मुझे किन कर्मों की सजा मिल रही है, लेकिन समझने की बात ये होती है कि तुम्हारी पत्नी बीमार अपने कर्मों की वजह से है, तुम्हारे कर्मों की वजह से नहीं है। तुम्हारे कर्म तो अच्छे हैं, लेकिन क्या पता तुम्हारी पत्नी के कर्म अतीत में अच्छे ना रहे हों. जिसकी वजह से वो बीमार हो गई हो और तुम्हारी पत्नी के कर्मों की वजह से तुम्हें भी दुख झेलना पड रहा है और इसी प्रकार बहुत से मनुष्य अपने बच्चों की वजह से अपने परिवार की वजह से इन सबकी वजह से खुद दुख झेल रहे होते हैं।

लेकिन ज़रा सोचो अगर तुम योग्य होते, तो तुम अपनी पत्नी का खुद इलाज करवा पाते, उसकी बिमारी दूर करवा पाते और क्या पता अगर तुम योग्य होते, तो तुम्हारा किसी दूसरी स्त्री के साथ विवाह हुआ होता, जो सवस्थ होती, लेकिन तुम योग्य नहीं थे, इसीलिए तुम अपनी पत्नी की वजह से खुद दुख झेल रहे हो। अगर तुम योग्य बन जाओगे तो दूसरे लोगों के कर्म तुम्हें प्रभावित नहीं कर पाएंगे।

सन्यासी ने भोला को चेतावनी देते हुए कहा की याद रखना, भोला आपको वो नहीं मिलता जो आप चाहते हो, बल्कि वो मिलता है, जिसके आप योग्य हो। इसीलिए अपनी योग्यता को बढाने पर काम करो, उसके लिए कर्म करो, कर्म का फल पाने के लिए कभी कर्म मत करो। भोला ने सन्यासी से हाथ जोडकर एक सवाल पूछा कि महात्मा मुझे यह बताने की अनुकंपा करें. कि मैं अपनी योग्यता किस प्रकार बढा सकता हूँ, ताकि मेरा मुख्य कर्म मुझको खुद ढूंढ सकें?

सन्यासी ने बडे ही शांत स्वर में कहना शुरू किया कि बेटा इसके लिए बडे ही सरल सरल उपाय होते हैं। सबसे पहला उपाय है कर्म करके भूलते जाओ। तुम जो भी कर्म कर रहे हो, अपने योग्य बनने के लिए उस कर्म को करने के बाद भूल जाओ, ये मत सोचो कि उससे तुम्हें क्या प्राप्त हुआ? इसीलिए कहा जाता है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो। अगर तुम फल की चिंता करोगे तो वास्तविकता में तुम कर्म कर ही नहीं रहे होंगे।

अक्सर मनुष्य की पीडा का ये एक बहुत बडा कारण होता है। वो सोचता है कि मैं कर्म तो अच्छे कर रहा हूँ लेकिन मुझे फल प्राप्त नहीं हो रहे और यही पीडा उसके मन को ठेस पहुंचाती रहती है। उसको अपने लक्ष्य से भटकती रहती है। किसी कर्म को करने के बाद अपना आकलन जरूर करें, लेकिन फल की चिंता ना करे। भोला ने सन्यासी से सवाल किया कि महात्मा हम अपना आकलन कैसे कर सकते हैं? सन्यासी ने उत्तर दिया कि बेटा जब भी तुम कोई काम पूरा करते हो तो काम पूरा करने के बाद खुद से ये सवाल पूछो।

कि क्या इस काम को करते समय तुम्हारा ध्यान इसी काम पर टिका हुआ था? ये तुम्हारा ध्यान कहीं और भटक रहा था। इस तरह तुम खुद का आकलन कर पाओगे, कि तुम कितने ध्यान के साथ उस काम को कर रहे थे और जीतने ध्यान से तुम किसी कर्म को करोगे, उतनी ही तुम्हारी योग्यता बढती जाएगी और अगर तुम यूं ही बस पूरा करने के लिए किसी कर्म को करते रहोगे, तो उस कर्म से तुम कभी भी योग्य नहीं बन पाओगे। वो कर्म तो पूरा हो जाएगा, लेकिन उसका फल तुम्हें प्राप्त नहीं होगा।

इसीलिए अपना आकलन इस प्रकार करो, कि तुम्हारा ध्यान वहाँ पर टिका हुआ था या नहीं था या तुम्हारे विचार तुम्हें कहीं भटका ले गए थे और कोशिश करो कि तुम्हारे विचार अगली बार जब तुम ये कर्म करो तो उसी कर्म पर टिके रहे, इधर उधर दूसरी बातों में भटके ना? भोला ने इस पर एक सवाल पूछा कि महात्मा जब भी हम कोई कर्म करते हैं तो हमारा मन विचारों से ग्रस्त हो जाता है। वो तरह तरह की बातें सोचने लगता है तो हम किस तरह अपने मन को एक ही कर्म पर टिकाकर रख सकते हैं, इसके लिए कोई उपाय बताएं?

सन्यासी ने इसका उत्तर देते हुए कहना शुरू किया कि बेटा जब भी तुम किसी कर्म को करते समय अपना पूरा भाव उसमें डाल देते हो तो तुम्हारे विचार उसी कर्म पर केंद्रित रह सकते हैं। पूरे निष्ठा, प्रेम और सद्भाव के साथ किया गया कर्म, तुम्हारे विचारों को इधर उधर नहीं भटकने देता। विचार तभी तुम्हे दूसरी दिशाओं में बहा कर ले जाते हैं।

जब तुम उस कर्म को पूरी निष्ठा के साथ नहीं करते, उसमें पूरा प्रेम नहीं डालते, उसमें पूरा भाव नहीं दिखाते। जब ये तीनों चीजें तुम उस कर्म में डाल देते हो तो स्वाभाविक रूप से तुम पूरी तरह उस कर्म में सम्मिलित हो जाते हो और तुम्हारा मन और मस्तिष्क एक ही जगह पर टिका रहता है। सन्यासी ने अपनी बात खत्म करते हुए कहा कि अगर कोई इंसान, कोई मनुष्य, इन उपायों का सही तरीके से इस्तेमाल करता है, उनका पालन करता है।

तो वो किसी भी कर्म के लिए अपने आप को योग्य बना सकता है और एक बार अगर वो योग्य बन जाता है तो उसी बछडे की भांति उसका कर्म उसे अपने आप ढूंढ लेता है। भोला को कुछ फलों के बदले जीवन भर का ज्ञान मिल चुका था। उसे स्पष्टता मिल चुकी थी। उसके सारे मन के सवाल खत्म हो चूके थे। उसने सन्यासी को प्रणाम किया और वहाँ से अपने घर के लिए निकल पडा। रात हो चुकी थी और रास्ते पर अंधेरा छाया हुआ था। वो इन बातों के बारे में विचार करता हुआ अपने घर की तरफ निकल पडता है।

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