अच्छे लोगों के साथ ही बुरा क्यों होता है-गौतम बुद्ध | Buddhist Story On Karma

अच्छे लोगों के साथ ही बुरा क्यों होता है-गौतम बुद्ध

स्वार्थी यानी कि स्वयं का अर्थ, जो इंसान स्वयं का अर्थ जानना चाहता है, जो खुद को समझना चाहता है, क्या वो इंसान आपकी नज़र में गलत है? हम जब भी किसी को स्वार्थी कहते हैं तो उसका मतलब तो यही होता है की वो आदमी स्वयं का अर्थ समझना चाहता है तो फिर वो गलत कैसे हुआ? स्वार्थी शब्द दुनिया की नजर में समाज की नजर में एक अलग ही नजरिये से समझा जाता है। अक्सर हम अपने आसपास ऐसे बहुत से लोगों को देखते हैं।

जो स्वभाव से बहुत अच्छे प्रतीत होते हैं यानी की सब लोगों की मदद करते हैं, सबसे अच्छा व्यवहार रखते हैं। लेकिन इसके साथ हमने ये भी देखा होगा कि ऐसे लोग जो स्वभाव के अच्छे होते हैं, दूसरों की मदद करते हैं, वो दुखी भी ज्यादा रहते हैं और जो लोग स्वार्थी होते हैं वो फलते फूलते चले जाते है तो ऐसे में परमात्मा की सत्ता पर उँगली उठाना निश्चित है। लेकिन अगर ये सत्य है तो हमें कौन सा मार्ग अपनाना चाहिए? क्या हम भी दूसरों के जैसे बन जाए?

पता नहीं आप में से कितने लोग ये मानते हैं की अच्छे लोग जीवन में बहुत दुखी रहते हैं, लेकिन इसके पीछे का सत्य क्या है? अगर हम इसके पीछे का सत्य नहीं जानेगे, नहीं पहचानेंगे, तो कहीं ना कहीं हमारा अवचेतन मन भी बुराइ की तरफ झुक जाएगा। इसीलिए अपने मन में ऐसे विचार पनपने से पहले इस बात की पूरी सच्चाई, पूरा निष्कर्ष निकाल लें, ताकि भविष्य में आपको अपने अच्छे होने पे पश्चाताप ना हो, दुख ना हो. आज की जो बौद्ध कहानी में आपको सुनाने वाला हूँ।

उसमें आपको पांच ऐसे तरीके पता चलेंगे जिसके माध्यम से अगर आप कर्म करते हैं तो आप अच्छे कर्म भी कर पाएंगे और दुखी भी नहीं होंगे। एक गांव में आनंद नाम का एक युवक रहता था, उसका भरा पूरा परिवार था। उसके दो बच्चे थे, उसकी पत्नी थी, लेकिन उसके माता पिता इस दुनिया से चल बसे थे। इसीलिए पूरे परिवार की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी।

बच्चे अपनी पढाई करते थे और उसकी पत्नी अपने घर गृहस्थी के कामों के साथ गाय, भैस, बकरी इत्यादि का दूध बेच कर अपना घर चलती थी और आनंद पहाड में पत्थर तोडने का काम करता था। बहुत ही मेहनत भरा काम था। पूरे दिन काम करता तो रात को थक कर घर पर वापस लौटता। लेकिन इतनी मेहनत करने के बाद भी अगर आनंद को गांव का कोई भी आदमी मदद के लिए बुलाता तो आनंद कभी भी मना नहीं करता था। उसके जीवन का एक ही सिद्धांत था।

अगर मैं दूसरों की मदद करूँगा तो परमात्मा मेरा साथ देंगे। परमात्मा मेरे साथ कुछ बुरा नहीं होने देंगे। आनंद अपने इस सिद्धांत का पालन बहुत ही कडाई के साथ करता था। वह इस सिद्धांत पर इतना विश्वास करता था, कि अगर कोई बहार का आदमी उस से मदद मांग लें, तो वो अपने घर का काम भी अधूरा छोडकर उस आदमी की मदद करने के लिए पहुँच जाता था. जिसकी वजह से उसकी पत्नी बहुत परेशान रहती थी। वो अक्सर आनंद को समझाने की कोशिश करती थी की सबसे पहले अपना काम करो।

अपने परिवार को देखो दो दो बच्चे है हमारे और फिर भी तुम दूसरों के काम करने में लगे रहते हो। अरे अपने घर को तो संभालो, अपना घर संभाल नहीं रहा, दूसरों की मदद करने चले हैं और जब ऐसी ऐसी बातें आनंद के कानों में पडती तो उसके हृदय में कांटा चुभने लगता था और उन दोनों में लडाई झगडा शुरू हो जाता था। अक्सर उनके लडाई झगडे का यही सबसे बडा कारण होता था लेकिन ना तो आनंद अपने आप को बदल पाया और ना ही उसकी पत्नी ने उसको समझाना कभी बंद किया। इसी वजह से आए दिन उनके घर में क्लेश होता रहता था।

जहाँ तक उस गांव वालों की बात थी तो वो आनंद के स्वभाव को जानते थे और वो जानबूझकर जो काम आसान भी होता था, जो उनके सामर्थ्य में भी होता था, उस काम के लिए भी वो आनंद को बुलाते थे ताकि उन्हें कम मेहनत करनी पडे। कहने का अर्थ ये है की गांव वाले आनंद की इस शिष्टाचार का फायदा उठाते थे, लाभ उठाते थे और सब पीछे से उसका मजाक उडाते थे, उसे बेवकूफ कहते थे। ऐसे ही समय भी तरह और एक दिन आनंद की पत्नी बहुत ज्यादा बीमार पड गयी।

आनंद से जो कुछ भी सेवा हो सकती थी, उसने वो सब अपनी पत्नी के लिए किया। उसने गांव के वैध को बुलाकर अपनी पत्नी की जांच करवाई लेकिन ये रोग उस वैध की पकड के बाहर था। इसीलिए उस वैध ने कहा कि तुम अपनी पत्नी को नगर में जाकर किसी बडे वैध को दिखाओ तो तुम्हारी पत्नी की जान बच सकती है। जल्द से जल्द नगर पहुंचने की व्यवस्था करो, नहीं तो तुम्हारी पत्नी के प्राण संकट में हो जाएंगे। ये सुनकर आनंद के पैरों तले जमीन फिसल गई। उसने ये नहीं सोचा था कि उसकी पत्नी के प्राण संकट में है।

वो सोच रहा था की कोई साधारण सा रोग होगा जिसका इलाज हो जाएगा। लेकिन जब उसने वैध की यही बात सुनी तो वो घबरा गया। अब पत्नी को नगर तक कैसे लेकर जाएं? क्योंकि उसके पास इतना धन नहीं था कि वो अपनी पत्नी के लिए एक घोडागाडी करके उसमें अपनी पत्नी को लिटाकर नगर में ले जा सके। उसकी पत्नी की हालत बिल्कुल चलने की भी नहीं थी, इसलिए उसे नगर पहुंचाने के लिए किसी घोडा गाडी की जरूरत थी। संयोग से उसके पडोसी धन्मू के पास एक घोडा गाडी थी।

वो अक्सर व्यापार के लिए अपनी घोडा गाडी नगर में लेकर जाया करता था। इसीलिए आनंद के मन में विचार आया कि मैं धन्मू की घोडागाडी ले सकता हूँ। मैं धन्मू की इतनी मदद करता हूँ, कभी उसके काम को नहीं टालता तो वो तो मेरे काम को कभी मना ही नहीं कर सकता और यही सोचकर वो घोडागाडी लेने के लिए धन्मू के पास पहुँच जाता है। लेकिन धन्मू बहुत ही चालाक इंसान था। वो बिना किराये के अपनी घोडागाडी अपने सगे संबंधियों के लिए भी नहीं ले जाता था, तो आनंद की तो दूर की बात रही.

जब आनंद ने उससे घोडा गाडी के बारे में पूछा तो उसने ये कह कर उसका ये काम टाल दिया की मेरे घोडे बहुत ज्यादा बीमार है। वो शायद बच भी मुश्किल से पाएंगे। पांच दिनों से वो कुछ नहीं खा रहे तो ऐसे में बेचारा घोडा गाडी लेकर कहा नगर तक पहुँच पायेगा। हाँ, अगर तुम कुछ धन की व्यवस्था कर सकते हो तो मैं अपने एक मित्र की घोडागाडी तुम्हारे लिए मंगवा सकता हूँ। ये सुनकर आनंद परेशान और चिंतित हो गया क्योंकि उसके पास धन तो था ही नहीं। इसका मतलब उसकी पत्नी बडे नगर में वैध के पास इलाज के लिए पहुँच ही नहीं पाएगी। उलझन भरे हुए विचार लिए हुए जब आनंद वापस आ रहा था.

तो उसने एक दिल दहलाने देने वाला दृश्य देखा। उसने देखा कि धन्मू के घोडे जो धन्मू के अनुसार बीमार थे और कुछ खा भी नहीं रहे थे, वहीं घोडे गांव का ही एक युवक उसकी बाढ से खोलकर बाहर ला रहा था और गाडी में उसको जोत रहा था। ये देखकर पहले तो आनंद को कुछ समझ में नहीं आया। उसके बाद जब आनंद ने उस युवक से पूछा तो उसने बताया कि धन्मू ने ये घोडागाडी उसे किराये पर दी है। यह सुनकर आनंद का दिल टूट गया।

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उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था की उसका सबसे अच्छा मित्र धन्मू उसके साथ ऐसा कर सकता है। हालांकि ये इस बात पर दुखी होने का वक्त नहीं था। इसीलिए आनंद वहाँ से जल्दी से लौट जाता है और गांव के ही एक सेठ के पास जाकर कुछ धन उधार लेकर धन्मू को दे देता है। धनु अपने मित्र की घोडा गाडी मंगवा देता है, जिसके बाद वो अपनी पत्नी को वैध के पास नगर में ले जाता है। जब उसकी पत्नी का इलाज चल रहा था तो आनंद यही सोच रहा था की एक वो दिन था जब धन्मू की बेटी बीमार हो गयी थी।

और धन्मू यहाँ पर नहीं था तो मैं पूरी रात वैध जी के पास उसके लिए बैठा रहा था, उसकी देखरेख की थी, उसकी सेवा की थी। इतने दिनों तक धन्मू नहीं आया था, तब मैं ही उसके परिवार की देखरेख किया करता था। हाय कैसा दुर्भाग्य है ये जिसके लिए मैंने इतना कुछ किया? उसने एक घोडा गाडी देने से मुझे मना कर दिया और वो भी तब जब मेरी पत्नी जिंदगी और मौत के साथ खेल रही थी। कुछ देर बाद वैध बाहर आकर आनंद को एक बहुत बुरी खबर देता है।

वो आनंद को बताता है कि उसकी पत्नी को कर्क रोग हो चुका है और इसका कोई भी इलाज नहीं है। उसके पास कुछ समय ही शेष बचा है। ये सुनकर आनंद दुखी होकर वहीं जमीन पर बैठ गया। उसकी पूरी दुनिया उजडने वाली थी और उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। कुछ समय बाद उसकी पत्नी चल बसी और अब दोनों बच्चों की जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई थी। लेकिन यहाँ पर आनंद के सारे सिद्धांत टूट चूके थे। उसके सारे भ्रम खत्म हो चूके थे।

अब उसके दिमाग में एक ही बात थी कि अच्छा कर्म करने से परमात्मा साथ नहीं देता, बल्कि बुरे लोग फलते फूलते हैं और इस बात का मैं सबसे बडा गवाह हूँ। ये विचार अक्सर उसके दिमाग में चलते रहते थे और इसी वजह से उसका मन धीरे धीरे संन्यस्त हो गया। देश दुनिया से दूर हट गया और एक दिन ऐसा भी आया जब वो अपने बच्चों को अपने रिश्तेदारों के पास छोडकर इस देश दुनिया को त्याग कर एक सन्यासी बनने के लिए घर से निकल पडा।

उसने गांव में किसी को कुछ नहीं बताया। किसी को नहीं पता था कि आनंद अचानक कहाँ गायब हो गया। संन्यास की दीक्षा लेने के लिए वो एक बौद्ध भिक्षु के पास पहुंचता है। बौद्ध भिक्षु उस समय ध्यान में बैठे हुए थे। ध्यान से बाहर आने के बाद वो बडे ध्यान से आनंद के चेहरे को देखते हैं और उससे सन्यासी बनने का कारण पूछते हैं। इस पर आनंद उन्हें अपनी पूरी आपबीती सुना देता है और कहता है की हे महात्मा इस दुनिया से मुझे कुछ भी हासिल नहीं हुआ।

मेरा मन इस दुनिया से विरक्त हो चुका है। जब अपने दोस्तों ने ही मेरा साथ नहीं दिया तो इस दुनिया में रहने का क्या मतलब? और इसी वजह से मैं सन्यासी बनना चाहता हूँ। ये सुनने के बाद बौद्ध भिक्षु ने उपदेश देना शुरू किया। उन्होंने कहा की याद रखना बेटा जीवन से विरक्त होकर सन्यासी बनना तुम्हें परम सुख तक कभी नहीं पहुंचा सकता। परमानंद तक कभी नहीं पहुंचा सकता। तुम दुनिया से अपने मन पर एक बोझ लेकर विरक्त हुए हो। तुम दुनिया से परमात्मा की खोज करने के लिए विरक्त नहीं हुए हो।

इस भ्रम में कभी मत रहना, तुम संसार से विरक्त हुए हो क्योंकि संसार ने तुम्हें धोखा दिया, ऐसा तुम्हें लगता है इसीलिए तुम परमात्मा पे कभी विश्वास नहीं कर पाओगे और ना ही उन पर अपनी पूर्ण आस्था बना पाओगे। इसीलिए सन्यासी होने का भी तुम पूरा लाभ कभी नहीं उठा पाओगे। सन्यासी होने का लाभ तब मिलता है जब हमारी प्रभु में, परमेश्वर में, परमात्मा में, पूर्ण आस्था बन जाती है। मैं तुमसे पूछता हूँ क्या तुम्हारी आस्था परमात्मा में है?

ये सुनकर आनंद कहता है की हे महात्मा मैं तो दुनिया देख कर आया हूँ की जो बुरे कर्म करता है वो फलता फूलता है और जो अच्छा काम करता है उसे कुछ भी नहीं देता। परमात्मा उसे दुख ही दुख देता है। इसीलिए मैं परमात्मा पर अपनी पूर्ण आस्था कैसे बना सकता हूँ? ये सुनकर उस बौद्ध भिक्षु ने कहा की यही तो यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ कि तुम पूरी ऊर्जा अपनी सन्यासी जीवन में लगाओ और उसके बाद भी तुम्हें फल प्राप्त ना हो तो तुम्हे कैसा लगेगा? इसीलिए किसी की भी मदद करने के लिए मैं पांच सिद्धांत तुम्हें बताता हूँ।

ये पांच सिद्धांत समझकर संसार में वापस लौट जाओ और संसार में एक ग्रस्त जीवन जीओ। उसके बाद ही सन्यासी जीवन का उदय होता है। जब हम अपने ग्रस्त जीवन को पूर्ण रूप से समझ लेते हैं और अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर देते हैं। ये कहकर बौद्ध भिक्षु ने कहना शुरू किया कि जब भी तुम किसी की सहायता करते हो, किसी की मदद करते हो, तो उसमें सबसे पहली बात सबसे पहला सिद्धांत जो ध्यान में रखने का होता है।

वो होता है की किसी की मदद करते वक्त, किसी की सहायता करते वक्त, कभी भी उससे उम्मीद मत रखना, ये मत सोचना की आज मैंने इसकी सहायता कर दी, मदद कर दी, तो कल बदले में ये भी मेरी सहायता करेगा, मेरी मदद करेगा। अगर तुम ऐसा सोचोगे तो तुम्हें जीवन में दुखों का सामना करना ही पडेगा, क्योंकि एक नहीं तो दूसरा या दूसरा नहीं तो तीसरा कोई ना कोई तुम्हारी उम्मीद जरूर तोडेगा और वास्तविकता में वो मदद या वो सहायता सहायता नहीं होती है। वो हमारे लालच का ही एक रूप होता है। हम उसकी सहायता या मदद निर्भर तरीके से नहीं कर रहे हैं। हमारे मन में लालच का भाव है, हमारे मन में बदले का भाव है। हम ये सोचकर मदद करते हैं कि इसकी मदद कर देता हूँ।

तो कल ये मेरा भी मदद करेगा और यही लालच हमें अक्सर उन लोगों की मदद करने पर विवश करता है जो किसी ना किसी रूप में धनवान होते हैं क्योंकि हमें लगता है की कल ये आदमी धन के द्वारा मेरी मदद कर सकता है और इसीलिए जिस इंसान को वास्तविकता में मदद की आवश्यकता है। हो सकता है वो गरीब हो लेकिन हमारा मन अपने लालच के वशीभूत होकर उसकी मदद कभी नहीं करेगा। इसीलिए किसी की मदद और किसी की सहायता करने के अपने विचार को विस्तार दो।

केवल एक प्रकार के वर्ग के लिए अपनी सहायता या अपनी मदद पेश मत करना, उन सबके लिए समान होनी चाहिए। ज़रा सोचो एक तरफ तुम्हारा मित्र हो, जिसके पास धन है, संपदा है और दूसरी तरह कोई गरीब औरत हो, जो भूखी बैठी हुई है, तुम्हारा दोस्त तुम से कहता है की यार आज तो खाने के लिए अच्छे अच्छे पकवान मंगवा लो बाजार से और दूसरी तरफ वो औरत तुमसे दो सूखी रोटी मांग रही है तो तुम किसकी मदद करोगे? कौन मदद का हकदार सबसे पहले है?

सबसे पहले हमारा कर्तव्य बनता है की उस औरत की भूख मिटाये लेकिन अक्सर इंसान ऐसे नहीं सोचता वो अपने दोस्त को तो खिला देगा, उसको तो बाजार से बहुत महंगी वस्तु मांगा के दे देगा, लेकिन किसी गरीब को उसकी भूख मिटाने के लिए पैसा या धन नहीं देगा। दूसरी बात जो ख्याल में रखने की है वो ये की सहायता करते वक्त हमारा लालच कभी भी उसके साथ नहीं जुडना चाहिए। अक्सर हम जब किसी की मदद करते हैं तो हमारा लालच और हमारा स्वार्थी उसके साथ जुडा होता है और हम अपनी भविष्य की योजना तैयार करके उस आदमी की मदद करते हैं।

हम ये सोचते है की अगर मैं इसका ये काम करूँगा तो भविष्य में ये आदमी मेरा वो काम पूरा कर देगा और वो सहायता वो मदद बिल्कुल भी परमात्मा के द्वार को नहीं खटखटाती क्योंकि वो लालच है। ज़ाहिर है आप अपने आप को धोखा देने के लिए अपने लालच को एक सहायता, एक मदद का रूप दे रहे हैं। तीसरी बात जो ख्याल रखने की है वो ये कि अपने सामर्थ्य के हिसाब से दूसरे की मदद करो। कभी भी एक ग्रस्त आदमी को किसी की इतनी सहायता नहीं करनी चाहिए जिससे कि उसका परिवार और उसके बच्चे कष्ट में जीवन बिताएं.

सबसे पहला फर्ज हमारा होता है अपने परिवार को सुखी रखना, उनकी जरूरतें पूरी करना और उसके बाद दूसरों की मदद करना आता है। लेकिन कुछ लोग दूसरों की मदद पहले करते हैं और अपने परिवार को तवज्जो कम देते हैं, जिससे कि परिवार में लडाई झगडे आए दिन पनपते रहते हैं और ये सब हम समाज में देखते रहते हैं अपने आस पास। अगली बार जो ख्याल में रखने की होती है वो ये कि अपना कर्म अपनी जिम्मेदारिया पहले निभानी होती है।

हम अपना कर्म अपना काम छोडकर पहले दूसरों की मदद करने के लिए चले जाते हैं और जब दूसरा बदले में हमारी मदद नहीं करता तो हमारा दिल दुखी हो जाता है। हम सोचते है की मैंने तो अपना काम छोडकर उस आदमी की मदद की थी और वो आदमी मेरी मदद ही नहीं कर रहा है। इसीलिए अपना कर्म सर्वोपरि अपना कर्म सबसे ऊपर क्योंकि वही काम करने के लिए इस दुनिया में हमारा जन्म हुआ है और सबसे आखिर में जो बात समझने की है वो ये की परमात्मा की मर्जी से ही सबकुछ होता है। हमारा कर्तव्य है अपने कर्म को करते जाना।

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करनी धरनी तो ऊपर वाले के हाथ में है। इसी लिए जो कुछ भी होता है सब ऊपर वाले पे छोड दो। अगर तुम्हें कोई धोखा भी देता है तो ये समझ के चलो की वो सब ऊपर वाले की करनी होती है। आप ये मान के चलो की मैं करता नहीं हूँ मैं तो एक माध्यम हूँ, करवाने वाला तो वो है उसके सामने किसकी मर्जी चली? जब ये आस्था, ये विश्वास हमारे मन में पनपने लगता है तो हमारी सारी शिकायतें दूर हो जाती है, क्योंकि इस दुनिया में जो भी होता है

अच्छे के लिए होता है। जो भी हो रहा है अच्छे के लिए हो रहा है और जो भी होगा अच्छा ही होगा। चाहे हमारी बुद्धि आज वर्तमान में इस सिद्धांत को ना समझ पाए। लेकिन जीवन में कभी ना कभी किसी ना किसी मोड पर आपको जरूर ये एहसास होगा कि जो हुआ था वो अच्छे के लिए ही हुआ था। इसीलिए सारी शिकायतें दूर कर दो और बस अपना कर्म करते जाओ। अपने ग्रस्त जीवन को पूर्ण रूप से झीलों

और उसके बाद ही सन्यासी जीवन की नींव होती है। इसके बाद बौद्ध भिक्षु ने आनंद को कहा कि वापस अपने गांव लौट जाओ, अपनी बेटियों को वापस लेकर आओ, उन्हें पालो पोसो अपने बच्चों को वापस लेकर आओ, दूसरी शादी कर लो लेकिन बच्चों का पालन पोषण अच्छे तरीके से करो। ये सुनकर आनंद अपने बच्चों के साथ अपने गांव में वापस लौट आता है। गांव में किसी को खबर नहीं थी कि आनंद कहाँ पर गया हुआ था और वो क्या ज्ञान लेकर वापस लौटा है। लेकिन अगले दिन सुबह सुबह गांव वालों ने आनंद के चेहरे पर एक अलग ही चमक, एक अलग ही आभा पाई।

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